Thursday 28 September 2023

सेवासदन

उपन्‍यास खतरनाक आदर्शवादी है। स्‍वामी गजानंद का चरित्र सत्‍य से पलायन है, असुन्‍दर को ढंकने का उपक्रम है। यहां प्रेमचन्‍द की कमजोरी नजर आती है। शायद सदियों पुराने पतिव्रत आदर्श की अवहेलना वे न कर पाए। ऐसे पात्रों के ग्‍लोरिफिकेशन से बचा जा सकता था।

       सबसे यथार्थ पात्र कृष्‍णचन्‍द्र का है। परिस्थितियों ने उसे बनाया व बिगाढा।

       उपन्‍यास द्विवेदीयुगीन उपदेशात्‍मकता से भरपुर है। संवाद कही कही बोझिल से जान पडते है। गठन में उपन्‍यास कुछ स्‍थूल सा हो गया है।

कोसी का घटवार

शेखर जोशी की कोसी का घटवार कालजयी रचना है। पढने के बाद मन में एक तडप सी छोड जाती है। लेखक का अभिप्राय भी इस दुख को सांझा करने से है। यदि कहानीकार उस दुख या वेदना को उसी गहनता से पाठक तक पंहुचा सकता है जितनी गहनता से वह खुद व्‍यथित है तो उसका कहानी लिखना सफल है। उसने कहा था के बाद वैसी ही वेदना मुझे इस कहानी को पढकर हुई।

कभी चार पैसे जुड जाए तो गंगनाथ्‍ का जागगर लगार भूल चूक की माफी मांग लेना। पूत परिवारवालों को देवी देवता के कोप से बचा रहना चाहिए।  यह पंक्तियां सीधे मर्म पर चोट कर करती है।

सूरज का सातवां घोडा

धर्मवीर भारतीजी का यह लघु उपन्‍यास एक बैठक में पूरा पढ डाला, आदयोपान्‍त। लघु उपन्‍यास मुझे इसलिए बेहद पसंद है।

ये 7 दिन चलने वाली भागवत कथा के समान है बस विषय प्रेम का है। कथा सुनाने वाले है माणिक मुल्‍ला। ऐसा व्‍यक्ति जिसने प्रेम के क्षेत्र में उम्र के हिसाब से कुछ ज्‍यादा ही अनुभव ले लिए है। कहानियां उनके जीवन से संबंधित है पर उन कहानियों में वो कही भी निर्णायक भूमिका में नही रहे है। बस वे उन कहानियों में सिर्फ अटके हुए पात्र है। एक दर्शक मात्र।

आरण्‍यक – विभूति भूषण बन्‍दोपाध्‍याय

 यह प्रकृति काव्‍य है पर मुझे यह इसलिए ही पसंद नही है बल्कि जो चीज इसे विशिष्‍ट बनाती है वह है प्रकृति से मानव का संपर्क। आरण्‍यक का कोई परिच्‍छेद तो मानो प्रकृति की असीम दुनिया में खो सा जाता है तो कोई परिच्‍छेद विविध प्रकृति के मानवों के ताने बाने से बुना होता है। और ये पात्र भी क्‍या मानव है, कहा नही जा सकता। मुझे तो वे प्रकृति के बीच पनपे उतने ही अकृ‍त्रिम जान पडते है जितने की वहां के पक्षी-फूल-पत्तियां है। वो बला का भोलापन मुझे किसी आश्‍चर्य से कम नही जान पडतता। पर यह सच है, ऐसे लोग भी होते है इस दुनिया में।

       आरण्‍यक का उत्‍तरार्द्ध दु:खद है, अपने ही हाथों उस विस्‍तृत वनराशि के उन्‍मूलन की गाथा है। पर लेखक तो निमित्‍त मात्र ही है।

       और जितने भी उपन्‍यास मैंने पढे, उनमें आरण्‍यक अपना अलग ही स्‍थान है। इसका नायक और कोई नही, स्‍वयं प्रकृति ही है और उसकी छाया में बसने वाले उसके पुत्र भी उस जैसे सरल और निष्‍कपट है।

       मैंने यह उपन्‍यास मई 2007 में पढा था। आज मई 2012 में पांच सालों बाद पुन: पढा। वक्‍त मानों पानी सा बह गया इस बीच।