यह प्रकृति
काव्य है पर मुझे यह इसलिए ही पसंद नही है बल्कि जो चीज इसे विशिष्ट बनाती है वह
है प्रकृति से मानव का संपर्क। आरण्यक का कोई परिच्छेद तो मानो प्रकृति की असीम दुनिया
में खो सा जाता है तो कोई परिच्छेद विविध प्रकृति के मानवों के ताने बाने से बुना
होता है। और ये पात्र भी क्या मानव है, कहा नही जा सकता। मुझे तो वे प्रकृति के बीच पनपे उतने ही अकृत्रिम जान
पडते है जितने की वहां के पक्षी-फूल-पत्तियां है। वो बला का भोलापन मुझे किसी आश्चर्य
से कम नही जान पडतता। पर यह सच है,
ऐसे लोग भी होते है इस दुनिया में।
आरण्यक का उत्तरार्द्ध दु:खद है, अपने ही हाथों उस
विस्तृत वनराशि के उन्मूलन की गाथा है। पर लेखक तो निमित्त मात्र ही है।
और जितने भी उपन्यास मैंने पढे, उनमें आरण्यक अपना
अलग ही स्थान है। इसका नायक और कोई नही, स्वयं प्रकृति ही है और उसकी छाया में बसने वाले उसके पुत्र भी उस जैसे
सरल और निष्कपट है।
मैंने यह उपन्यास मई 2007 में पढा था। आज मई
2012 में पांच सालों बाद पुन: पढा। वक्त मानों पानी सा बह गया इस बीच।